Tuesday 28 April 2015

अनाम


आसमान का ये ख़ाली केसरी कैनवस,
और उसपे बिखरे ये भूरे से बादल के बुरादे,
जैसे किसी आवारा शायर की अधूरी नज़्म, लफ़्ज़ तलाशते हों।
यूँ के दोनों ही अपनी अपनी शक्लें ढूँढते ,
शाम की दहलीज़ पे आ मिलते हैं, और इस गहराती रात के साये में पिघलने लगते हैं।
तब जाकर शायद कहीं पूरे भी होते हैं...