Friday, 13 April 2012

" Zindagi"

सौ चेहरे हैं तेरे और शायद सैकड़ों आयाम
पल में सुबह सी उभर के आती है
और यूँ ही ढल भी जाये जैसे एक खूबसूरत शाम .

मिल जाती है कभी नसीबों के नाम
बेवजह रूठी सी फिर छोड़ भी जाती है
क्या कहूं अब तुझे शायद ज़िन्दगी है तेरा नाम.

गैरों में मिलती फिर भी अपनों सी बनती
लम्हों से सजती पर सदियों में ढलती
एक हिस्सा उम्र का, या है ये उम्र ही तमाम

विरह की कल्पना या आलिंगन का गान
गीत ग़ज़ल कविता शायद इन सब से भी अनजान
क्या कहूं अब तुझे शायद ज़िन्दगी है तेरा नाम

जी गए यूँ तो सारे
कुछ अपने कुछ पराये कुछ बिना किसी सहारे
बस और कुछ नहीं तेरी आरजू के नाम

इब्तेदा तो ना देखी पर अब इन्तेहा से है काम
टुकड़ों को जोड़ेगी वो बिखरे जो हर तरफ
मौत से ही पूरी होगी तू, हाँ ज़िन्दगी है तेरा नाम

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